Sunday, May 22, 2016

साहिब, बाबू और चपरासी

दुनिया न जाने कहाँ से कहाँ पहुँच गई- मज़दूर मनरेगा में मिट्टी खोदते समय अपने मोबाईल पर 'शीला की जवानी' सुनता है और रईस आदमी खाने में सिर्फ़ सलाद और दाल खा रहा है। ऐसे गड़बड़झाले में भी यदि कोई ऐसी पवित्र संस्था है जिसने अपने शाश्वत स्वरूप को अक्षुण्ण रखते हुए मानव समाज का विश्वास क़ायम रखा है तो वह है सरकारी ऑफिस अर्थात् शासकीय कार्यालय। वैसे तो कार्यालय उसे कहते हैं जहाँ कार्य किया जाता है, अतः सरकारी ऑफिस को कार्यालय कहा जा सकता है या नहीं ये मुद्दा थोड़ा विवादित है। ख़ैर, हम आपको लिए चलते हैं एक सरकारी दफ़्तर के अन्दर जहाँ लगातार चलती रहती है एक त्रिकोणीय स्पर्धा साहिब, बाबू और चपरासी के बीच।

वैसे कायदे से सरकारी ऑफिस की हायरार्की में साहब का स्थान सबसे उच्च है और चपरासी का सबसे निम्न। दोनों के बीच सामंजस्य बिठाता है क्लर्क यानी कि बाबू। साहब सभी इसी मुग़ालते में जीते हैं कि पूरा ऑफिस उनके कण्ट्रोल में है। उन्हें लगता है कि पल पल और टेबल टेबल की खबर उन्हें है। अगर साहब ईमानदार हों तो ये मुग़ालता पाल लेतें हैं कि उनके ज्वाइन करते ही समस्त भ्रष्टाचार स्वयं ऑफिस से बाहर चला गया है। और अगर साहब खुद ऊपरी कमाई के शौक़ीन हों तो सोचते हैं कि सबसे शातिर और सबसे अधिक कमाई करने वाले पूरे ऑफिस में बस वही एक हैं। साहबों को मुग़ालते पालते रहना उनके अस्तित्व के लिए आवश्यक है। वरना साहबी ही क्या रह गयी फिर? और इसलिए नौसिखिये साहबों को मुग़ालते पालना सिखा दिया जाता है।
      "श्रीमान ने जब से ये कुर्सी संभाली है, ऊर्जा और स्फूर्ति चहुँ ओर छाई हुई है।"
      "सर आपके आने से करप्शन बिलकुल खत्म हो गया है।"
      "जितना काम आपने साहब सात दिन में कर दिखाया इतना तो पिछले साहब दो साल में नहीं कर पाये।"
ये कुछ नुस्खे हैं जो बाबू और चपरासी साहब लोगों को सुबह शाम देते रहते हैं और रोज़ाना चार डोज़ के बाद सात दिन में साहब को अपनी साहबी में इस कदर यकीन हो जाता है कि वे मान लेते हैं कि उनके सिवा 'न भूतो न भविष्यति'।

चपरासी का पूरा अस्तित्व इसी बात पर निर्भर करता है कि उसका साहब के कमरे में प्रवेश कितना सुगम है और वो अन्य लोगों का प्रवेश कितना दुर्गम कर सकता है। साहब को पटाने के उसे बहुत गुर आते हैं। "जितनी इन साहब की उम्र है न, उससे ज़्यादा साहब मैंने अपनी काँख में दबा कर निकाल दिए"-ऐसा आत्मविश्वास ही एक चपरासी को सफल चपरासी बनाता है। चपरासी सबसे कुशल साइकोलोजिस्ट होता है। उसे पता होता है कि कब साहब के कुर्सी के सफ़ेद तौलिये को बदलना है, साहब को कितनी कितनी देर पर चाय पीनी है, साहब गाडी में साथ कौन सी डायरी और कौन सी फ़ाइल ले जाना चाहते हैं, और अगर चपरासी ने एक दो फ्रायड या कार्ल यंग पढ़ रखा हो तो साहब की कमीज़ का रंग देख कर बता देगा कि आज साहब कौन सी फ़ाइल क्लियर करेंगे और कौन सी लटका देंगे। एक अच्छा चपरासी सिर्फ किस्मत और ईश्वरीय कृपा से ही प्राप्त होता है। कहते हैं सोलह सोमवार के व्रत से भी अच्छा चपरासी कुछ साहबों को प्राप्त हुआ है।

चपरासी और साहब के बीच की कड़ी है बाबू। ये इतनी कड़ी होती है कि इस कड़ी को नरम करने में कर्रे से कर्रे साहब के पसीने छूट जाते हैं। बाबू एक सरकारी ऑफिस का इंजन होता है। चपरासी उस ऑफिस का पहिया और साहब ऑफिस की सजावट। बाबू का प्रादुर्भाव ब्रह्मा के भी पहले हुआ था और ब्रह्मा के प्रादुर्भाव की फ़ाइल भी किसी बाबू के पास ही मिलेगी। बाबू के कलम में जादू होता है। अमर अकबर और अन्थोनी की तरह "होनी को अनहोनी कर दे, अनहोनी को होनी" ऐसी ताकत का स्वामी होता है बाबू। बाबू के भी कुछ अलग नस्ल पायी जाती हैं जिसमें से सबसे धारदार और घातक नस्ल होती है बड़े बाबू की। बड़े बाबू न सिर्फ छोटे बाबू और अन्य बाबू से तज़ुर्बे में, बल्कि साहब को छकाने में भी सीनियर होते हैं।

"महोदय को फलां अधिनियम की फलां धारा में ऐसी शक्तियां प्राप्त हैं" -इस मंत्र से बाबू कोई भी फ़ाइल साहब से क्लियर करा सकता है। अगर साहब थोड़े सवाली टाइप के हों तो वो पलासी के युद्ध से आज तक जारी किये गए सभी सरकारी दस्तावेज़ जो लगभग 2-5 किलो का वज़न रखते हों, को पेश कर कह देगा, कि "श्रीमान स्वयं अध्ययन कर निर्णय करने में सक्षम हैं"। इसके बाद तो साहब का बाप भी जहाँ बोलों वहां साइन करने को तैयार हो जाता है। जब भी दो अलग अलग विभागों के साहब आपस में दोनों विभागों के कोआर्डिनेशन की बात करते हैं तो इसका तात्पर्य ये होता है कि सबंधित विभागों के बाबू एक दुसरे से कोआर्डिनेशन कर लें।

बाबू न सिर्फ चपरासी से वरिष्ठ होने के कारण उसकी समस्त कारस्तानियों से वैसे ही वाकिफ होता है जैसे कौरवों के मंसूबों से धृतराष्ट्र बल्कि साहब के अधीनस्थ होने के बावजूद भी उसे साहब से ज़्यादा दिव्यदृष्टि होती है। धृतराष्ट्र को वही दीखता है जो संजय दिखाता है। ऑफिस में वर्चस्व की लड़ाई में साहब और बाबू एक दूसरे को धरने के उपाय खोजते हैं और चपरासी कभी साहब की मंथरा और कभी बाबू का शकुनि बनकर ऑफिस का महाभारत/रामायण रचता रहता है।

मज़ेदार माहौल तब बनता है जब साहब बड़े बाबू की बातों में आकर चपरासी या छोटे बाबू को हड़का बैठते हैं। इससे बड़े बाबू के रुआब में चार चाँद लग जाते हैं। मज़ा तब भी आता है जब चपरासी चाय का प्याला रखते हुए धीमी आवाज़ में साहब को बताता है की बड़े बाबू साहब के नाम पर कमा रहे हैं। कि कैसे साहब स्वयं सतवादी हरिश्चंद्र की तरह महान और बड़े बाबू महा लुटेरे हैं। साहब चपरासी को डांटते हैं कि इधर की बात उधर मत करो, अपना काम करो। और चपरासी क्षमा की मुद्रा में सर सर करता हुआ चला जाता है, मन में मुस्काते हुए कि अपना काम तो कर दिया।

साहब मन बनाते हैं कि बाबू को ठीक कर दूंगा। एक लंबी चौड़ी रिपोर्ट बना कर बाबू को ससपेंड करने का मन बनाते हैं लेकिन जब अगले दिन उनका ही ट्रान्सफर आर्डर आता है तब उन्हें मालूम चलता है कि बाबू मंत्रीजी का भतीजा है। हर ट्रान्सफर पर साहब को मालूम होता है कि साहब मनुष्य की तरह नश्वर है, और चपरासी आत्मा की तरह शाश्वत परंतु बाबू परमात्मा की तरह सर्वव्यापक है।

और यह त्रिकोणीय स्पर्धा मनुष्य-आत्मा-परमात्मा की तरह साहब-चपरासी-बाबू में चलती रहती है। ॐ शांति शांति शांतिः।।